Thursday, September 30, 2010
victory on ayodhya : is this against muslims
Wednesday, September 29, 2010
Saturday, September 25, 2010
UESDAY, JUNE 29, 2010
Our toughts control our destiny
- Our thoughts control our words
- Our words decide our deeds
- Over time, our actions are formed into habits
- Sum total of our habits makes our character
- And finally, it is our character that determines our destiny
अक्सर लोग कहते हैं कि हम अमीर बनना चाहते हैं, पर सचाई यह है कि कोई भीअमीर बनना नहीं चाहता। अगर हम अपनी मानसिकता में अमीर नहीं बनते, तोबाहर से अमीर नहीं बन सकते। बाहर से अमीर बनने के लिए सबसे पहले मानसिकस्तर पर अमीर बनना होगा।
वेदांत का नियम है, जैसा सोचते हैं, वैसा बनते हैं। यदि हम मन से यह सोच लेते हैंकि हम गरीब हैं, बेकार हैं, कुछ नहीं कर सकते तो हम सदा गरीब और बेकार ही बनेरहेंगे। यदि सोचते हैं कि हम अमृत पुत्र हैं, उस परमसत्ता की संतान हैं तो फिर हमदर-दर की ठोकरें क्यों खाएंगे?
इसे एक उदाहरण से समझिए। हम अपने बच्चे के ऑफिस में उसको बिना बताएजाते हैं और वह अपने बॉस के सामने छुट्टी अथवा प्रमोशन के लिए गिड़गिड़ा रहाहै, तो देखकर हमें कैसा लगेगा? बहुत बुरा। इसी तरह, हम उस परमपिता की संतानहै; पर स्वयं को दीन-हीन बनाया हुआ है, तो परमात्मा को कैसा लगेगा?
संतान अपने माता-पिता के अनुरूप ही होती है। यदि पिता 'गुप्ता' है तो उसकी संतानभी 'गुप्ता' ही कहलाएगी। हम प्रभु की संतान हैं तो हम क्या हुए? प्रभु पूर्ण हैं तो प्रभुका अंश भी पूर्ण ही होगा। तो हम अपने आप को बेचारा, लाचार, दास क्यों समझें?
यदि हम कुछ प्राप्त करना चाहते हैं तो सबसे पहले मानसिक स्तर पर हमें यहनिश्चय करना चाहिए कि हां, मैं यह प्राप्त कर सकता हूं। पहले मन में सकारात्मकविचार का आना जरूरी है, क्योंकि विचार से ही इच्छा का सृजन होता है और इच्छाही कार्यरूप में परिणत होती है।
यदि दिमाग में पहले ही नकारात्मक विचार आ गया कि नहीं हो पाएगा तो वह नहींहोगा। मान लीजिए, लकड़ी का एक फट्टा जमीन पर रखा जाए, उस फट्टे पर चलनेके लिए कहा जाए, तो सब लोग आसानी से चल पाएंगे। उतना ही चौड़ा फट्टा दो बड़ीइमारतों के ऊपर रखा जाए और उस पर चलने के लिए कहा जाए तो क्या होगा? एकबार मन में आ गया कि हम इस पर नहीं चल पाएंगे, नीचे गिर जाएंगे, तो फिरफट्टे पर नहीं ही चल पाएंगे।
हमें आध्यात्मिक अथवा भौतिक स्तर पर कुछ भी प्राप्त करना है तो सर्वप्रथमदिमाग में विचार डालने की जरूरत है। इसके बदले यदि सोचें कि हम तो बीमार हैं,हमारे कंधों में, घुटनों में, पीठ में -सारे शरीर में दर्द रहता है, तो फिर बीमार हीरहेंगे। वास्तविकता यह है कि शरीर विचार नहीं बनाते, अपितु विचारों से शरीरबनता है। यदि कोई व्यक्ति वैचारिक स्तर पर राजसिक है, बहुत ऊर्जावान है तोशारीरिक स्तर पर भी वह स्फूतिर्वान रहेगा, आलसी नहीं।
आजकल बाजार में अंग्रेजी की एक पुस्तक बहुत प्रसिद्ध हो रही है जिसका नाम है -दसीक्रेट। इसमें यही बताने की कोशिश की गई है कि आपके विचार ही आपके भविष्यका आधार हैं। यही बात गीता के 7 वें अध्याय के 21वें श्लोक में कही गई है। कृष्णकहते हैं, जो जो भक्त जिस विचार को श्रद्धा से प्राप्त करना चाहता है, उस उस श्रद्धावाले व्यक्ति के विचारों को मैं पूर्ण करता हूँ।
इसलिए भाग्य को बदलने के लिए अपने विचारों को सुधारना होगा,क्योंकि-
हमारे विचार ही शब्दों में परिवर्तित होते हैं।
हमारे शब्द ही कर्मों में परिणत होते हैं।
हमारे कर्म ही हमारी आदत बनते हैं।
हमारी आदतों से ही हमारा चरित्र बनता है।
हमारा चरित्र ही हमारा भाग्य निर्माता
Tuesday, September 14, 2010
india in history
The East India Company which ruled India for more than 200 years is now ruled by an Indian Sanjiv Mehta who took over the company for $150 lac.
He said” at an emotional level as an Indian, when you think with your heart as I do, I had this huge feeling of redemption - this indescribable feeling of owning a company that once owned us”
But media is not interested in such great news. They were busy in useless Sania and Shoaib’s marriage Lets us be the media…&..Fwd this mail to all Indians...
Sanjiv Mehta, CEO of The East India Company
Saturday, September 11, 2010
how to save the india, a small solution
HOW THESE ISLAMIC PEOPLE FORCING LITTLE HINDU GIRLS TO CONVERT AND MARRY WITH THEM
घटना कराची की है। महज 13 साल की पूनम के चाचा भंवरू ने डेली टाइम्स को बताया, 'पूनम को बुधवार को ल्यारी कस्बे से अगवा कर लिया गया। पड़ोसियों ने बताया कि पूनम का अपरहण करने के बाद उसे ल्यारी के एक मदरसे में रखा गया है। यह जानकारी मिलने पर हम वहां गए। हमने देखा कि पूनम बेहद डरी हुई और मौलवियों के प्रभाव में थी। उसने बताया कि मौलवी उसे घर नहीं जाने देंगे। मुस्लिम बन जाने के कारण वह अब उनके साथ नहीं जा सकती। वह अब मुस्लिम बनकर ही रहेगी।'
भंवरू ने बताया कि इसके बाद वे भतीजी के अपहरण की प्राथमिकी दर्ज कराने पुलिस स्टेशन गए, लेकिन पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज करने से इंकार कर दिया। वहीं, ल्यारी के पुलिस अधीक्षक खादिम हुसैन रिंद से जब मीडिया ने इस मामले में पूछताछ की तो उन्होंने साफ कहा कि प्राथमिकी दर्ज कराने से कुछ नहीं होगा, इसे न्यायालय में खारिज कर दिया जाएगा।
NOTE- SAME THING GOING TO HAPPEN IN INDIA AND ALL OVER THE WORLD AFTER 30 YEARS ( IN J&K ALREADY GOING ON) , THEY WILL TAKE OUR MONEY AND KIDS ON THEIR WISH THEN WHY WE EARNING AND PRODUCING KIDS AND SPENT SO MUCH BIG MONEY ON THEIR EDUCATION.
ANYBODY HAVE ANY SOLUTION ? INSTEAD OF MAKING SOFTWARE AND OTHER DEVELOPMENT FIRST WE SHOULD MAKE A SYSTEM TO STOP IT, SPECIALLY FOR HUMAN RIGHTS.
Wednesday, September 1, 2010
om jai jagdish hare
ओम जय जगदीश की आरती जैसे भावपूर्ण गीत के रचयिता थे पं. श्रध्दाराम शर्मा। प. श्रध्दाराम शर्मा का जन्म 1837 में पंजाब के लुधियाना के पास फुल्लौर में हुआ था। उनके पिता जयदयालु खुद एक अच्छे ज्योतिषी थे। उन्होंने अपने बेटे का भविष्य पढ़ लिया था और भविष्यवाणी की थी कि यह एक अद्भुत बालक होगा। बालक श्रध्दाराम को बचपन से ही धार्मिक संस्कार तो विरासत में ही मिले थे। उन्होंने बचपन में सात साल की उम्र तक गुरुमुखी में पढाई की। दस साल की उम्र में संस्कृत, हिन्दी, पर्शियन, ज्योतिष, और संस्कृत की पढाई शुरु की और कुछ ही वर्षो में वे इन सभी विषयों के निष्णात हो गए।
पं. श्रध्दाराम ने पंजाबी (गुरूमुखी) में 'सिखों दे राज दी विथिया' और 'पंजाबी बातचीत' जैसी किताबें लिखकर मानो क्रांति ही कर दी। अपनी पहली ही किताब 'सिखों दे राज दी विथिया' से वे पंजाबी साहित्य के पितृपुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। इस पुस्तक मे सिख धर्म की स्थापना और इसकी नीतियों के बारे में बहुत सारगर्भित रूप से बताया गया था। पुस्तक में तीन अध्याय है। इसके अंतिम अध्याय में पंजाब की संकृति, लोक परंपराओं, लोक संगीत आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई थी। अंग्रेज सरकार ने तब होने वाली आईसीएस (जिसका भारतीय नाम अब आईएएस हो गया है) परीक्षा के कोर्स में इस पुस्तक को शामिल किया था।
ओम जय जगदीश की आरती
1870 में उन्होंने ओम जय जगदीश की आरती की रचना की। प. श्रध्दाराम की विद्वता, भारतीय धार्मिक विषयों पर उनकी वैज्ञानिक दृष्टि के लोग कायल हो गए थे। जगह-जगह पर उनको धार्मिक विषयों पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया जाता था और तब हजारों की संख्या में लोग उनको सुनने आते थे। वे लोगों के बीच जब भी जाते अपनी लिखी ओम जय जगदीश की आरती गाकर सुनाते। उनकी आरती सुनकर तो मानो लोग बेसुध से हो जाते थे। आरती के बोल लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़े कि आज कई पीढियाँ गुजर जाने के बाद भी उनके शब्दों का जादू कायम है।
उन्होंने धार्मिक कथाओं और आख्यानों का उध्दरण देते हुए अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ जनजागरण का ऐसा वातावरण तैयार कर दिया कि अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ गई। वे महाभारत का उल्लेख करते हुए ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने का संदेश देते थे और लोगों में क्रांतिकारी विचार पैदा करते थे। 1865 में ब्रिटिश सरकार ने उनको फुल्लौरी से निष्कासित कर दिया और आसपास के गाँवों तक में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। जबकि उनकी लिखी किताबें स्कूलों में पढ़ाई जाती रही।
पं. श्रध्दाराम खुद ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे और अमृतसर से लेकर लाहौर तक उनके चाहने वाले थे इसलिए इस निष्कासन का उन पर कोई असर नहीं हुआ, बल्कि उनकी लोकप्रियता और बढ गई। लोग उनकी बातें सुनने को और उनसे मिलने को उत्सुक रहने लगे। इसी दौरान उन्होंने हिन्दी में ज्योतिष पर कई किताबें भी लिखी। लेकिन एक इसाई पादरी फादर न्यूटन जो पं. श्रध्दाराम के क्रांतिकारी विचारों से बेहद प्रभावित थे, के हस्तक्षेप पर अंग्रेज सरकार को थोड़े ही दिनों में उनके निष्कासन का आदेश वापस लेना पड़ा। पं. श्रध्दाराम ने पादरी के कहने पर बाईबिल के कुछ अंशों का गुरुमुखी में अनुवाद किया था। पं. श्रध्दाराम ने अपने व्याख्यानों से लोगों में अंग्रेज सरकार के खिलाफ क्रांति की मशाल ही नहीं जलाई बल्कि साक्षरता के लिए भी ज़बर्दस्त काम किया।
आज जिस पंजाब में सबसे ज्यादा कन्याओं की भ्रूण हत्याएं होती है इसका एहसास उन्होंने बहुत पहले कर लिया था। 1877 में भाग्यवती नामक एक उपन्यास प्रकाशित हुआ (जिसे हिन्दी का पहला उपन्यास माना जाता है), इस उपन्यास की पहली समीक्षा अप्रैल 1887 में हिन्दी की मासिक पत्रिका प्रदीप में प्रकाशित हुई थी। इसे पंजाब सहित देश के कई राज्यो के स्कूलों में कई सालों तक पढाया जाता रहा। इस उपन्यास में उन्होंने काशी के एक पंडित उमादत्त की बेटी भगवती के किरदार के माध्यम से बाल विवाह पर ज़बर्दस्त चोट की। इसी इस उपन्यास में उन्होंने भारतीय स्त्री की दशा और उसके अधिकारों को लेकर क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किए।
पं. श्रध्दाराम के जीवन और उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर गुरू नानक विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के डीन और विभागाध्य्क्ष श्री डॉ. हरमिंदर सिंह ने ज़बर्दस्त शोध कर तीन संस्करणों में श्रध्दाराम ग्रंथावली का प्रकाशन भी किया है। उनका मानना है कि पं. श्रध्दाराम का यह उपन्यास हिन्दी साहित्य का पहला उपन्यास है। लेकिन यह मात्र हिन्दी का ही पहला उपन्यास नहीं था बल्कि कई मायनों में यह पहला था। उनके उपन्यास की नायिका भाग्यवती पहली बेटी पैदा होने पर समाज के लोगों द्वार मजाक उडा़ए जाने पर अपने पति को कहती है कि किसी लड़के और लड़की में कोई फर्क नहीं है। उन्होने इस उपन्यास के जरिए बाल विवाह जैसी कुप्रथा पर ज़बर्दस्त चोट की। उन्होंने तब लड़कियों को पढाने की वकालात की जब लड़कियों को घर से बाहर तक नहीं निकलने दिया जाता था, परंपराओं, कुप्रथाओं और रुढियों पर चोट करते रहने के बावजूद वे लोगों के बीच लोकप्रिय बने रहे। जबकि वह ऐक ऐसा दौर था जब कोई व्यक्ति अंधविश्वासों और धार्मिक रुढियों के खिलाफ कुछ बोलता था तो पूरा समाज उसके खिलाफ हो जाता था। निश्चय ही उनके अंदर अपनी बात को कहने का साहस और उसे लोगों तक पहुँचाने की जबर्दस्त क्षमता थी।
हिन्दी के जाने माने लेखक और साहित्यकार पं. रामचंद्र शुक्ल ने पं. श्रध्दाराम शर्मा और भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिन्दी के पहले दो लेखकों में माना है। पं.श्रध्दाराम शर्मा हिन्दी के ही नहीं बल्कि पंजाबी के भी श्रेष्ठ साहित्यकारों में थे, लेकिन उनका मानना था कि हिन्दी के माध्यम इस देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुँचाई जा सकती है। पं. श्रध्दाराम का निधन 24 जून 1881 को लाहौर में हुआ।
पं.श्रध्दाराम शर्मा के बारे में अंग्रेजी में लेख यहाँ और यहाँ उपलब्ध है।
ओम जय जगदीश, स्वामी जय जगदीश हरे
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे
जो ध्यावे फल पावे, दुःख बिनसे मन का
सुख-सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का
मात पिता तुम मेरे, शरण गहूँ मैं किसकी
तुम बिन और न दूजा, आस करूं मैं जिसकी
तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतर्यामी
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी
तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता
मैं सेवक तुम स्वामी, कृपा करो भर्ता
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति
किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति
दीनबंधु दुःखहर्ता, तुम रक्षक मेरे.
करुणा हस्त बढ़ाओ, द्वार पडा तेरे
विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा
ओम जय जगदीश, स्वामी जय जगदीश हरे
जियो तो ऐसे जियो | शिवानी जोशी | बुधवार , 20 फ़रवरी 2008 | |
इस देश के घर-घर और मंदिरों में जिसके शब्द बरसों से गूंज रहे हैं, दुनिया के किसी भी कोने में बसे किसी भी सनातनी हिंदू परिवार में ऐसा व्यक्ति खोजना मुश्किल है जिसके ह्रदय-पटल पर बचपन के संस्कारों में उसके लिखे शब्दों की छाप न पड़ी हो। उनके शब्द उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत के हर घर और मंदिर मे पूरी श्रध्दा और भक्ति के साथ गाए जाते हैं। बच्चे से लेकर युवाओं को और कुछ याद रहे या न रहे इसके बोल इतने सहज, सरल और भावपूर्ण है कि एक दो बार सुनने मात्र से इसकी हर एक पंक्ति दिल और दिमाग में रच-बस जाती है। हम बात कर रहे हैं देश और दुनियाभर के करोड़ों हिन्दुओं के रग-रग में बसी ओम जय जगदीश की आरती की। हजारों साल पूर्व हुए हमारे ज्ञात-अज्ञात ऋषियों ने परमात्मा की प्रार्थना के लिए जो भी श्लोक और भक्ति गीत रचे, ओम जय जगदीश की आरती की भक्ति रस धारा ने उन सभी को अपने अंदर समाहित सा कर लिया है। यह एक आरती संस्कृत के हजारों श्लोकों, स्तोत्रों और मंत्रों का निचोड़ है। लेकिन इस अमर भक्ति-गीत और आरती के रचयिता पं. श्रध्दाराम शर्मा के बारे में कोई नहीं जानता और न किसी ने उनके बारे में जानने की कोशिश की। हमारे हजारों पाठकों ने हमारा ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि हम ओम जय जगदीश की आरती के लेखक के बारे में कुछ बताएं। प्रस्तुत है इस अमर रचनाकार का जीवन परिचय। |
vande matram our national song what is wrong with it
दुनिया के अधिकतर राष्ट्रगीत उस देश के संघर्ष के समय पैदा हुए हैं। चाहे फ्राँस हो या अमेरिका, उनकी उत्पत्ति संकट और संघर्ष के क्षणों में हुई है। स्वयं ब्रिटेन का राष्ट्रगीत जैकोबाइट विद्रोह के दौर की ही देन है। ये कहीं किसी राष्ट्र नायक के इर्द-गिर्द विकसित हुए डेनमार्क, हैती आदि तो कहीं देश के ध्वज के संदर्भ में होंडुरास, संयु राज्य अमेरिका, कहीं ये शुद्ध प्रार्थना है तो कहीं ये शस्त्र उठाने का आव्हान स्पेन, फ्राँस आदि, कहीं ये लोकगीत। दुनिया के हर देश को अपने राष्टर गीत पर नाज़ होता है और वहाँ के लोग उसे गाने मैं गौरव महसूस करते है। हमारे यहा राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान दोनों हैं। मगर अजीब विडंबना है कि हमारे देश में असंदिग्ध सम्मान का अधिकारी वो राष्ट्रगान भी नहीं है, जिसे गुनगुनाना भी औपनिवेशिक राजसत्ता के दौर में एक आपराधिक कृत्य था क्योंकि उसकी स्वर लहरी से साम्राज्यवादियों को नर्वस ब्रेकडाउन हो जाता था। ऐसे अद्भुत राष्ट्रगान के बारे में आइए देखें कि गलतफहमी फैलाने वाले किस हद तक अपने मानसिक दिवालिएपन को उजागर करते हैं।
राजेन्द्र यादव जो ‘वरिष्ठ साहित्यकार और मासिक पत्रिका ‘हंस के संपादक हैं, का कहना है कि ‘उनकी यह राष्ट्र वंदना बहुत ही सांप्रदायिक और संकीर्ण मानसिकता वाली है। ऐसी ही मातृभूमि की कल्पना वंदे मातरम् में की गई है जो म्लेच्छों से खाली होगी। इसे नहीं मंजूर किया जा सकता है।
दिक्कत यह है कि वंदे मातरम् गाना जिस उपन्यास से लिया गया है, वह मुसलमानों के खिलाफ़ है और अंग्रेजों के भी। इस उपन्यास और इस गाने में अपनी मातृभूमि को म्लेच्छों से खाली कराने का आव्हान किया गया है। यहा म्लेच्छों का संदर्भ बिल्कुल स्पष्ट है। मुसलमानों को म्लेच्छ माना गया है। इस लिहाज से यह बहुत सांप्रदायिक ढंग का गाना है, जिसे नह गाया जाना चाहिए।
हमारे कई पाठकों ने वंदे मातरम् गीत के बारे में जानना चाहा है कि इसका इतिहास क्या है और यह पूरा गीत कहाँ उपलब्ध होगा। हम यहाँ पूरा गीत उपलब्ध करा रहे हैं, साथ ही यह भी बता देना चाहते हैं कि इस गीत को पूरा गाने पर इसलिए रोक लगा दी थी कि कतिपय राष्ट्रविरोधी ताकतों को यह गीत अधार्मिक और उनकी धार्मिक भावनाओं के खिलाफ लग रहा था। इस गीत में लाल रंग में दी गई पंक्तियों को राष्ट्र विरोधी मान लिया गया था, अब यह आप ही फैसला करें कि इन पंक्तियों में ऐसा क्या है जिसके गाने से देश की एकता और अखंडता को हानि पहुँच रही थी। इस देश में जब तक ऐसी सरकारें मौजूद रहेगी, जो राष्ट्र भक्ति से ओत-प्रोत गीत को ही राष्ट्र विरोधी मानेगी तो फिर इस देश को आतंकवाद और राष्ट्र विरोधी शक्तियों से कोई नहीं बचा सकता। इस विषय पर मध्य प्रदेश के जन संपर्क आयुक्त एवं वरिष्ठ आयएएस अधिकारी श्री मनोज श्रीवास्तव का एक खोजपरक लेख भी हमें मिला है, जिसमें उन्होंने दुनिया भर के कई देशों के राष्ट्रीय गीतों के इतिहास के साथ ही वंदे मातरम् के इतिहास. आज़ादी के पहले से लेकर आज़ादी के बाद तक की इसकी यात्रा और इसके विभिन्न आयामों को प्रामाणिक तथ्यों के साथ सामने लाने की कोशिश की है। हिन्दी में वंदे मातरम् पर इससे बेहतरीन लेख इंटरनेट पर कहीं उपलब्ध नहीं है। हम अपने पाठकों के लिए यह लेख भी साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। आज देश को मनोज श्रीवास्तव जैसे आयएएस अधिकारियों की जरुरत है जो अपनी भाषा में राष्ट्रीय हित से जु़ड़े मुद्दों पर चिंतन ही नहीं करते हैं बल्कि उस पर बेबाकी से अपनी कलम भी चलाते हैं।विशेष | मनोज श्रीवास्तव | सोमवार , 18 अगस्त 2008
कहने को तो यह मातृभूमि की वंदना है लेकिन सवाल यह उठता है कि किसकी मातृभूमि और कैसी मातृभूमि? जिस तरह से भारत का राष्ट्रगीत है उसमें सबको शामिल करने की बात कही गई है, लेकिन वंदे मातरम् में देश के एक बड़े समूह को अलग करने की बात कही गई है, इसलिए यह नकारात्मक गाना है।
यादव की यह टिप्पणी विचारहीनता और तर्कहीनता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व तो करती ही है, तथ्यहीनता को भी स्पष्ट करती है। महोदय ने वंदे मातरम् को पूरा-पूरा पढा भी नह है, यह उनकी इस टीप में कट तथ्य संबंधी त्रुटियों से ही स्पष्ट है।
वंदे मातरम् के जिन दो छंदों को राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया है, उनमें न म्लेच्छ शब्द का प्रत्यक्ष या परोक्ष योग है और न म्लेच्छों से देश को खाली कराने के किसी लक्ष्य, इरादे या योजना का। दो छंद तो पूर्णत: विशेषणों से भरपूर हैं : सुजलाम् सुफलाम्, मलयज शीतलाम्, शस्य श्यामलाम्, शुभ्र ज्योत्स्नाम्, पुलकित यामिनीम्; फुल्लकुसुमित, द्रुमदल शोभिनीम्, सुहासिनीम्, सुमधुर भाषिणीम्; सुखदाम्, वरदाम्---।
इनमें कहाँ हैं म्लेच्छ और उनसे मातृभूमि को खाली कराने के उद्गार? यह एक विडंबना ही है कि एक गीत जो औपनिवेशिक शोषण और गुलामी के विरुद्ध सारे भारतीयों को जोड़ने का मूलमंत्र बना, समकालीन स्वतंत्र भारत में ‘भड़काने और विभाजित करने के आरोप का शिकार हो रहा है। इस गीत में कौन सी ‘नकारात्मकता है?
जिन कोटि-कोटि कंठ के कलकल निनाद की बात इस गीत में कही गई है क्या उसमें कोई जातीय या सांप्रदायिक सोच दिखाई देता है? जिन कोटि-कोटि भुजाओं की बात इसमें कही गई है क्या उसमें सिर्फ हिंदुओं की ही भुजाए हैं? ‘सांप्रदायिक विभाजन गीत में नहीं, इसके इन वरिष्ठ व्याख्याकारों के दिमाग में है जो एक स्थानांतरण ट्रांस्फेरेंस की मनोरचना मेंटल मैकेनिज्म के चलते इस गीत पर आरोपित किया गया है।
आगे पढ़ें :
सम्पूर्ण वन्देमातरम
इतिहास के पन्नों पर वंदे मातरम्
आइए देखें कि संविधान विशेषज्ञ ए-जी- नूरानी व कवींद्र शुक्ला ने 17 नवंबर 1998 को घोषणा की कि वंदे मातरम् के गायन को अनिवार्य बनाए जाने का आदेश है और उसे लागू भी किया जाएगा। तब नूरानी ने फ्रंट लाइन पत्रिका के जनवरी 02-15, 1999 के अंक में इसे असंवैधानिक कदम बताया। उन्होंने इसे संविधान के अनुच्छेद 28 (1) एवं 3 का उल्लंन बताया। ये अनुच्छेद इस प्रकार हैं-
1 राज्य कोष से संपूर्णत: संधारित होने वाली किसी भी शैक्षणिक संस्था में धार्मिक शिक्षा नह दी जाएगी तथा (3) राज्य के द्वारा मान्यता प्राप्त या राजकोष से सहायता प्राप्त किसी शिक्षण संस्था में उसकी या यदि वह नाबालिग है तो उसके अभिभावक द्वारा सहमति के बिना कोई धार्मिक शिक्षण नह होगा। उन्होंने अपने लेख में इस गीत को धार्मिक मानते हु इसके लिए नीरद सी- चौधरी की ‘एक अज्ञात भारतीय की जीवनी तथा आर-सी- मजूमदार को उद्धृत किया जहाँ इस गीत के रचयिता महान देश भक्त बंकिमचंद्र को मुस्लिम विरोधी बताया गया है।
उन्होंने आनंदमठ में इस गीत के योग के एम-आर-ए- बेग द्वारा किए गए विलेषण अप्रैल-जून 1969, द इंडियन जर्नल ऑफ पॉलिटिकल साइंस, -2, पृ-120-122 को उद्धृत किया जिसके अनुसार उपन्यास में न कि इस गीत का संदर्भ मुस्लिम विरोधी है बल्कि पूरा उपन्यास ही मुस्लिम विरोधी है।
उन्होंने 30 दिसंबर 1908 को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग अधिवेशन के द्वितीय सत्र में सैयद अली इमाम के अध्यक्षीय उद्बोधन को उद्धृत किया जिसमें वंदे मातरम् को एक सांप्रदायिक आव्हान बताया गया था। इमाम के महान शब्द जो उन्होंने उद्धृत करने लायक समझे वे ये हैं-
‘क्या अकबर और औरंगजेब द्वारा किया गया योग असफल हो गया?
सभी भावनाओं और संवेदनाओं, जरूरतों और आवश्यकताओं के प्रति आदर सच्चे भारतीय राष्ट्रवाद का आधार है। मैं भारतीय राष्ट्रवाद के शिल्पियों से, चाहे वे कलकत्ता में हों या पूना में, पूछता हूँ कि क्या वे भारत के मुसलमानों से ‘वंदे मातरम् और शिवाजी उत्सव स्वीकार करने की उम्मीद करते हैं? मुसलमान हर मामले में कमजोर हो सकते हैं लेकिन अपने स्वरणिम अतीत की परंपराओं का अस्वाद लेने में कमजोर नहीं हैं।
नूरानी भारतीय नागरिक के संविधान -उल्लिखित मूल कर्त्तव्य का भी ध्यान नहीं करते प्रतीत होते, जिसके अनुसार-आजादी के राष्ट्रीय संग्राम में हमें प्रेरणा देने वाले ‘महान आदशो का अनुकरण करना और उन्हें संजोना नागरिक का मूल कर्तव्य है। क्या स्वतंत्रता संग्राम में वन्दे मातरम् के आदर्श से ज्यादा प्रेरक और कुछ रहा है?
इस देश में असंख्य अल्पसंख्यक वन्दे मातरम् के प्रति श्रद्धा रखते हैं। यह उनकी श्रद्धा का अपमान ही था जब आगरा में 10 मार्च 2004 को 54 मुसलमानों को जाति बाहर कर दिया गया और उनकी शादिया शून्य घोषित कर दी गई क्योंकि उन्होंने यह कहीं दिया था कि वन्दे मातरम् गाना गैर इस्लामी नहीं है।
मुफ्ती अब्दुल कुदूस रूमी ने फतवा जारी करते हुए कहा कि राष्ट्रगान का गायन उन्हें मुस्लिमों को नरक पहुँचाएगा। बहिष्त लोगों में लोहा मण्डी और शहीद नगर मस्जिदों के मुतवल्ली भी थे। इनमें से 13 ने माफी मांग ली। आश्चर्य की बात है कि अपराधिक गतिविधियों में शामिल होना, आतंकवादी कार्रवाईयों में भाग लेना, झूठ, धोखा, हिंसा, हत्या, असहिष्णुता, शराब, जुआ, राष्ट्र द्रोह और तस्करी जैसे कृत्य से कोई नरक में नहीं जाता मगर देश भक्ति का ज़ज़बा पैदा करने वाले राष्ट्र गान को गाने मात्र से एक इंसान नरक का अधिकारी हो जाता है।
पायोनियर ने 20 नवम्बर, 1998 को पार्थक्य की इस मानसिकता को उजागर किया जब मुस्लिम विद्यार्थियों ने कहा कि वे वन्दे मातरम् नहीं गाएगे क्योंकि भारत माता की तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करने से मुस्लिम, मुस्लिम नह रह जाता, क्योंकि यह मूर्ति पूजा है, क्योंकि यह स्वतंत्रता संघर्ष में ‘‘हिडन हिन्दुत्व लाने का टैगौर और गँधीजी का षड़यंत्र था, हमारे बच्चे स्कूल छोड देंगे लेकिन वन्दे मातरम् नहीं गाएगे, ‘‘ हम मरने को तैयार हैं, पर वन्दे मातरम् स्वीकार नह कर सकते।
शम्सुल इस्लाम ‘मिल्ली गजट में प्रकाशित अपने लेख ‘द हिस्ट्री एण्ड पॉलिटिक्स ऑफ वन्दे मातरम् में आगरा के उस मुफ्ती के समर्थन में लिख कर (देखें 1-15 मई 2004) मात्र यही सिद्ध करते हैं कि उनकी बुद्धिजीविता कठमुल्लेपन को जस्टीफाई करने मात्र के लिए है।
वन्दे मातरम् का इतिहास इनके शब्दों में - ‘‘ 1875 में बंगदर्शन में सबसे पहले प्रकाशन के बाद ही वन्दे मातरम् एक या दूसरे से घिरा रहा। यह एक विचित्र रचना है जो दो भाषाओं में लिखी गई। चार में से दो छंद संस्कृत में और दो बंगाली में हैं।
कवि नवीनचन् सेन ने इस गीत को पढ़ने के बाद कहा कि वैसे तो यह सब अच्छा है लेकिन आधी बंगाली और आधी संस्कृत मिलाकर सब गुड़ गोबर कर दिया है। यह मुझे गोविन्द अधिकारी के जात्रा गीतों की याद दिलाता है। मजाक उड़ाना बहुत आसान है, शम्सुलजी मजाक बनाना चाहें तो किसी भी राष्ट्रगीत का बनाया जा सकता है।
ब्रिटेन के राष्टर गान में रानी को हर तरह से बचाने की प्रार्थना भगवान से की गई है अब ब्रिटेन के नागरिकों को यह सवाल उठाना चाहिए कि कि भगवान रानी को ही क्यो बचाए, किसी कैंसर के मरीज को क्यों नहीं? बांग्लादेश से पूछा जा सकता है कि उसके राष्ट्रगीत में यह आम जैसे फल का विशेषोल्लेख क्यों है? सउदी अरब का राष्ट्रगीत ‘‘सारे मुस्लिमों के उत्कर्ष की ही क्यों बात करता है और राष्ट्रगीत में राजा की चाटुकारिता की क्या जरूरत है?
सीरिया के राष्ट्रगीत में सिर्फ ‘अरबवाद की चर्चा क्या इसे रेसिस्ट नह बनाती? ईरान के राष्ट्रगीत में यह इमाम का संदेश क्या कर रहा है? लीबिया का राष्ट्रगीत अल्लाहो अकबर की पुकारें लगाता है तो क्या वो धार्मिक हुआ या राष्ट्रीय? अल्जीरिया का राष्ट्रगीत क्यों गन पाउडर की आवाज को ‘हमारी लय और मशीनगन की ध्वनि को ‘हमारी रागिनी कहता है? अमेरिका के राष्ट्रगीत में भी ‘हवा में फूटते हुए बम क्यों हैं?
चीन के राष्ट्रगीत में खतरे की यह भय ग्रन्थि क्या है? किसी भी देश के राष्ट्रगीत पर ऐसी कोई भी कैसे भी टिप्पणी की जा सकती है लेकिन ये गीत सदियों से इन देशों के करोडों लोगों के प्रेररणा स्रोत हैं और बने रहेंगे।
उनका उपहास हमारी असभ्यता है। शम्सु इस्लाम हमें यह भी जताने की कोशिश करते हैं कि वन्दे मातरम् गीत कोई बड़ा सिद्ध नहीं था और यह भी कोई राष्ट्रगीत न होकर मात्र बंगाल गीत था। वह यह नहीं बताते कि कनाडा का राष्ट्रगीत 1880 में पहली बार बजने के सौ साल बाद राष्ट्रगीत बना। 1906 तक उसका कहीं उल्लेख भी नहीं हुआ था। आस्ट्रेलिया का राष्ट्रगीत 1878 में सिडनी में पहली बार बजा और 19 अप्रैल 1984 को राष्ट्रगीत का दर्जा प्राप्त हुआ।
वन्दे मातरम् गीत आनन्दमठ में 1882 में आया लेकिन उसको एक एकीकृत करने वाले गीत के रूप में देखने से सबसे पहले इंकार 1923 में काकीनाड कांग्रेस अधिवेशन में तत्कालीन कांग्रेसाध्यक्ष मौलाना अहमद अली ने किया जब उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के हिमालय पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर को वन्दे मातरम् गाने के बीच में टोका। लेकिन पं. पलुस्कर ने बीच में रुकर कर इस महान गीत का अपमान नहीं होने दिया, पं- पलुस्कर पूरा गाना गाकर ही रुके।
सवाल यह है कि इतने वषो तक क्यों वन्दे मातरम् गैर इस्लामी नह था? क्यों खिलाफत आंदोलन के अधिवेशनों की शुरुआत वन्दे मातरम् से होती थी और ये अहमद अली, शौकत अली, जफर अली जैसे वरिष्ठ मुस्लिम नेता इसके सम्मान में उठकर खड़े होते थे। बेरिस्टर जिन्ना पहले तो इसके सम्मान में खडे न होने वालों को फटकार लगाते थे। रफीक जकारिया ने हाल में लिखे अपने निबन्ध में इस बात की ओर इशारा किया है। उनके अनुसार मुस्लिमों द्वारा वन्दे मातरम् के गायन पर विवाद निरर्थक है। यह गीत स्वतंत्रता संग्राम के दौरान काँग्रेस के सभी मुस्लिम नेताओं द्वारा गाया जाता था। जो मुस्लिम इसे गाना नहीं चाहते, न गाए लेकिन गीत के सम्मान में उठकर तो खड़े हो जाए क्योंकि इसका एक संघर्ष का इतिहास रहा है और यह संविधान में राष्ट्रगान घोषित किया गया है।
बंगाल के विभाजन के समय हिन्दू और मुसलमान दोनों ही इसके पूरा गाते थे, न कि प्रथम दो छंदों को। 1896 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अधिवेशन में इसका पूर्ण- असंक्षिप्त वर्शन गया गया था। इसके प्रथम स्टेज परफॉर्मर और कम्पोजर स्वयं रवींद्रनाथ टैगोर थे।
1901 के कांग्रेस अधिवेशन में फिर इसे गाया गया। इस बार दक्षणरंजन सेन इसके कम्पोजर थे। इसके बाद कांग्रेस अधिवेशन वन्दे मातरम् से शुरू करने की एक प्रथा चल पडी। 7 अगस्त 1905 को बंग-भंग का विरोध करने जुटी भीड़ के बीच किसी ने कहा : वन्दे मातरम् और चमत्कार घट गया। सहस्रों कंठों ने समवेत स्वर में इसे दोहराया तो पूरा आसमान वंदे मातरम के घोष से गूंज उठा। इस तरह अचानक ही वन्दे मातरम् और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को उसका प्रयाण-गीत मिल गया। अरविन्द घोष ने इस अवसर का बडा रोमांचक चित्र खींचा है। 1906 में अंग्रेज सरकार ने वन्दे मातरम् को किसी अधिवेशन, जुलूस या सार्वजनिक स्थल पर गाने से प्रतिबंधित कर दिया गया।
प्रसिद्ध नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी और अमृत बाजार पत्रिका के सम्पादक मोतीलाल घोष ने बारीसाल में एकत्र हुए युवा कांग्रेस अधिवेशन के प्रतिनिधियों से चर्चा की। 14 अप्रैल 1906 को अंग्रेज सरकार के प्रतिबंधात्मक आदेशों की अवज्ञा करके एक पूरा जुलूस वन्दे मातरम् के बैज लगाए हुए निकाला गया और पुलिस ने भयंकर लाठी चार्ज कर वंदे मातरम के इन दीवानों पर हमला कर दिया। मोतीलाल घोष और सुरेंद्र नाथ बनर्जी जैसे लोग रक्त रजित होकर सड़को पर गिर पड़े, उनके साथ सैकड़ों लोगों ने पुलिस की लाठियाँ खाई और लाठियाँ खाते खाते वंदे मातरम् का घोष करते रहे।।
अगले दिन अधिवेशन फिर वन्दे मातरम् गीत से शुरू हुआ। 6 अगस्त 1906 को अरविन्द कलकत्ता आ गए और वन्दे मातरम् के नाम से एक अंग्रेजी दैनिक ही निकालना शुरू किया। सिस्टर निवेदिता ने प्रतिबंध के बावजूद निवेदिता गर्ल्स स्कूलों में वन्दे मातरम् को दैनिक प्रार्थनाओं में शामिल किया।
लेकिन नूरानी अकेले नहीं हैं जिनको देवी या माता जैसे शब्द भी सांप्रदायिक लगते हैं, 13 मार्च 2003 को कर्नाटक के प्राथमिक एवं सेकेण्डरी शिक्षा के तत्कालीन राज्य मंत्री बी-के-चंद्रशेखर ने ‘प्रकृति‘ शब्द के साथ ‘देवी लगाने को ‘‘हिन्दू एवं साम्दायिक मानकर एक सदस्य के भाषण पर आपत्ति की थी। तब उस आहत सदस्य ने पूछा था कि क्या ‘भारत माता, ‘कन्नड़ भुवनेश्वरी और ‘कन्नड़ अम्बे जैसे शब्द भी साम्दायिक और हिन्दू हैं?
1905 में गाँधीजी ने लिखा- आज लाखों लोग एक बात के लिए एकत्र होकर वन्दे मातरम् गाते हैं। मेरे विचार से इसने हमारे राष्ट्रीय गीत का दर्जा हासिल कर लिया है। मुझे यह पवित्र, भक्तिपरक और भावनात्मक गीत लगता है। कई अन्य राष्ट्रगीतों के विपरीत यह किसी अन्य राष्ट्र-राज्य की नकारात्मकताओं के बारे में शोर-शराबा नह करता। 1936 में गाँधीजी ने लिखा - ‘‘ कवि ने हमारी मातृभूमि के लिए जो अनके सार्थक विशेषण प्रयुक्त किए हैं, वे एकदम अनुकूल हैं, इनका कोई सानी नहीं है।
अब हमारी जिम्मेदारी है कि हम इन विशेषणों को यथार्थ में बदलें। इसका स्रोत कुछ भी हो, कैसे भी और कभी भी इसका सृजन हुआ हो, यह बंगाल के विभाजन के दौरान हिन्दुओं और मुसलमानों की सबसे शक्तिशाली रणभेरी थी। एक बच्चे के रूप में जब मुझे आनन्दमठ के बारे में कुछ नहीं मालूम था और न इसके अमर लेखक बंकिम के बारे में, तब भी वन्दे मातरम् मेरे ह्रदय पर छा गया। जब मैंने इसे पहली बार सुना, गाया, इसने मुझे रोमांचित कर दिया। मैं इसमें शुद्धतम राष्ट्रीय भावना देखता। मुझे कभी ख्याल नह आया कि हिन्दू गीत है या सिर्फ हिन्दुओं के लिए रचा गया है।
देश के बाहर 1907 में जर्मनी के स्टुटगार्ट में अंतर्राष्टीय सोशलिस्ट कांग्रेस का अधिवेशन शुरू होने का था जिसमें पं- श्यामजी वर्मा, मैडम कामा, विनायक सावरकर आदि भाग ले रहे थे। भारत की स्वतंत्रता पर संकल्प पारित करने के लिए उठ मैडम कामा ने भाषण शुरू किया, आधुनिक भारत के पहले राष्ट्रीय झण्डे को फहराकर। इस झण्डे के मध्य में देवनागरी में अंकित था वंदे मातरम्। 1906 से यह गीत भारतीयों की एकता की आवाज बन गया। मंत्र की विशेषता होती है- उसकी अखण्डता यानी इंटीग्रिटी। मंत्र अपनी संपूर्णता में ही सुनने मात्र से से भाव पैदा करता है। जब
1906 से 1911 तक यह वंदे मातरम् गीत पूरा गाया जाता था तो इस मंत्र में यह ताकत थी कि बंगाल का विभाजन ब्रितानी हुकूमत को वापस लेना पडा, लेकिन, 1947 तक जबकि इस मंत्र गीत को खण्डित करने पर तथाकथित ‘राजनीतिक सहमति बन गई तब तक भारत भी इतना कमजोर हो गया कि अपना खण्डन नहीं रोक सका यदि इस गीत मंत्र के टुकड़े पहले हुए तो उसकी परिणति देश के टुकडे होने में हुई।
मदनलाल ढींगरा, फुल्ल चाकी, खुदीराम बोस, सूर्यसेन, रामप्रसाद बिस्मिल और अन्य बहुत से क्रांतिकारियों ने वंदे मातरम कही कर फासी के फंदे को चूमा। भगत सिंह अपने पिता को पत्र वंदे मातरम् से अभिवादन कर लिखते थे। सुभाषचं बोस की आजाद हिन्द फौज ने इस गीत को अंगीकार किया और सिंगापुर रेडियो स्टेशन से इसका सारण होता था।
1938 में स्वयं नेहरूजी ने लिखा-‘ तीस साल से ज्यादा समय से यह गीत भारतीय राष्ट्रवाद से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा रहा है। ‘ऐसे जन गीत टेलर मेड नहीं होते और न ही वे लोगों के दिमाग पर थोपे जा सकते हैं। वे स्वयं अपनी ऊँचाईया हासिल करते हैं। यह बात अलग है कि रविन्नाथ टेगौर, पं. पलुस्कर, दक्षिणरंजन सेन, दिलीप कुमार राय, पं- ओंकारनाथ ठाकुर, केशवराव भोले, विष्णुपंथ पागनिस, मास्टर कृष्णावराव, वीडी अंभाईकर, तिमिर बरन भाचार्य, हेमंत कुमार, एम एस सुब्बा लक्ष्मी, लता मंगेशकर आदि ने इसे अलग अलग रागों, काफी मिश्र खंभावती, बिलावल, बागेश्वरी, झिंझौटी, कर्नाटक शैली आदि रागों में गाकर इसे हर तरह से समृध्द किया है। बडी भीड भी इसे गा सकती है, यह मास्टर कृष्णाराव ने पुणे में पचास हजार लोगों से इस गीत को गवाया और सभी ने एक स्वर में बगैर किसी गलती के इसको गाकर इस गीत की सरलता को सिध्द किया।फिर उन्होंने पुलिसवालों के साथ इसे मार्च सांग बनाकर दिखाया। विदेशी बैण्डों पर बजाने लायक सिद्ध करने के लिए उन्होंने ब्रिटिश नेवल बैण्ड चीफ स्टेनलेबिल्स की मदद से इसका संगीत तैयार करवाया।
26 अक्टूबर 1937 को पं- जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कलकत्ता में कांग्रेस की कार्यसमिति ने इस विषय पर एक प्रस्ताव स्वीकृत किया। इसके अनुसार ‘‘ यह गीत और इसके शब्द विशेषत: बंगाल में और सामान्यत: सारे देश में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीयय तिरोध के प्रतीक बन गए। ‘वन्दे मातरम् ये शब्द शक्ति का ऐसा पस्त्रोत बन गए जिसने हमारी जनता को प्रेरित किया और ऐसे अभिवादन हो गए जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की हमें हमेशा याद दिलाता रहेगा।
गीत के प्रथम दो छंद सुकोमल भाषा में मातृभूमि और उसके उपहारों की प्रचुरता के बारे में देश में बताते हैं। उनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिस पर धार्मिक या किसी अन्य दृष्टि से आपत्ति उठाई जाए।
वंदे मातरम् ।
सुजलाम् सुफलाम् मलयज् शीतलाम्
सस्यश्यामलम् मातरम् ।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिणिम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्
सुखदाम् वरदाम् मातरम् ।।
वंदे मातरम् ।
कोटि–कोटि-कंठ कल-कल-निनाद-कराले
कोटि–कोटि-भुजैघृत-खरकरवाले
अबला केन माँ एत बले।
बहुबलधारिणीम् नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीम् मातरम् ।।
वंदे मातरम् ।
तुमि विद्या तुमि धर्म
तुमि ह्रदि, तुमि मर्म
त्वं हि प्रणाः शरीरे
बाहूते तुमि माँ शक्ति
ह्दये तुमि माँ भक्ति
तोमारइ प्रतिमा गडि मंदिरे मंदरे ।।
वंदे मातरम् ।
त्वं हि दुर्गादशप्रहरमधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी
नमामि त्वं नमामि कमलाम्
अमलाम् अतुलाम् सुजलाम् सुफलाम् मातरम् ।।
वंदे मातरम् ।
श्यामलाम् सरलाम् सुष्मिताम् भूषिताम्
धारिणीम् भारिणीम् मातरम् ।।
वंदे मातरम् ।
इतिहास के पन्नों पर वंदे मातरम्
- ७ नवम्वर १८७६ बंगाल के कांतल पाडा गांव में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने ‘वंदे मातरम’ की रचना की ।
- १८८२ वंदे मातरम बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंद मठ’ में सम्मिलित ।
- १८९६ रवीन्द्र नाथ टैगोर ने पहली बार ‘वंदे मातरम’ को बंगाली शैली में लय और संगीत के साथ कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में गाया।
- मूलरूप से ‘वंदे मातरम’ के प्रारंभिक दो पद संस्कृत में थे, जबकि शेष गीत बांग्ला भाषा में।
- वंदे मातरम् का अंग्रेजी अनुवाद सबसे पहले अरविंद घोष ने किया।
- दिसम्बर १९०५ में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में गीत को राष्ट्रगीत का दर्जा प्रदान किया गया, बंग भंग आंदोलन में ‘वंदे मातरम्’ राष्ट्रीय नारा बना।
- १९०६ में ‘वंदे मातरम’ देव नागरी लिपि में प्रस्तुत किया गया, कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने इसका संशोधित रूप प्रस्तुत किया ।
- १९२३ कांग्रेस अधिवेशन में वंदे मातरम् के विरोध में स्वर उठे ।
- पं. नेहरू, मौलाना अब्दुल कलाम अजाद, सुभाष चंद्र बोस और आचार्य नरेन्द्र देव की समिति ने २८ अक्तूबर १९३७ को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में पेश अपनी रिपोर्ट में इस राष्ट्रगीत के गायन को अनिवार्य बाध्यता से मुक्त रखते हुए कहा था कि इस गीत के शुरुआती दो पैरे ही प्रासंगिक है, इस समिति का मार्गदर्शन रवीन्द्र नाथ टैगोर ने किया ।
- १४ अगस्त १९४७ की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक का प्रारंभ ‘वंदे मातरम’ के साथ और समापन ‘जन गण मन..’ के साथ..।
- १९५० ‘वंदे मातरम’ राष्ट्रीय गीत और ‘जन गण मन’ राष्ट्रीय गान बना ।
- २००२ बी.बी.सी. के एक सर्वेक्षण के अनुसार ‘वंदे मातरम्’ विश्व का दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय गीत।
वंदे मातरम् को लेकर ऐतिहासिक तथ्यों के लिए देखें:
http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2006/09/060904_spl_vande_sunil.shtml
http://www.prabhasakshi.com/vandemataram/balendusharmadadhich2.htm
http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2006/09/060904_spl_vande_sabyasachi.shtml
वंदे मातरम् के रचयिता बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के बारे में यहाँ पढ़ें:
http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2006/09/060904_profile_bankim.shtml
वंदे मातरम् पर एक पुस्तक:
http://vrihad.com:5200/bs/home.php?bookid=4765
वंदे मातरम् पर एक और पुस्तक
http://pustak.org/bs/home.php?bookid=6107
life history of shree hanuman prasad poddar
जियो तो ऐसे जियो | शिवानी जोशी | शुक्रवार , 05 अक्टूबर 2007 | |
इस देश में संत महात्माओं की कमी नहीं, शाही जिंदगी जीने वाले और कॉरेपोरेट घरानों के लिए कथा करने वाले इन संत- महात्माओं ने अपने ऑडिओ-वीडिओ जारी करने, अपनी शोभा यात्राएं निकालने, अपने नाम और फोटो के साथ पत्रिकाएं प्रकाशित करने और टीवी चैनलों पर समय खरीदकर अपना चेहरा दिखाकर जन मानस में अपना प्रचार करने के अलावा कुछ नहीं किया। मगर इस देश के सभी संत और महात्मा मिलकर भी गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक कर्मयोगी स्वर्गीय हनुमान प्रसाद पोद्दार की जगह नहीं ले सकते। शायद आज की पीढ़ी को तो पता ही नहीं होगा कि भारतीय अध्यात्मिक जगत पर हनुमान पसाद पोद्दार नामका एक ऐसा सूरज उदय हुआ जिसकी वजह से देश के घर-घर में गीता, रामायण, वेद और पुराण जैसे ग्रंथ पहुँचे सके। |
राजस्थान के रतनगढ़ में लाला भीमराज अग्रवाल और उनकी पत्नी रिखीबाई हनुमान के भक्त थे, तो उन्होंने अपने पुत्र का नाम हनुमान प्रसाद रख दिया। दो वर्ष की आयु में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो जाने पर इनका पालन-पोषण दादी माँ ने किया। दादी माँ के धार्मिक संस्कारों के बीच बालक हनुमान को बचपन से ही गीता, रामायण वेद, उपनिषद और पुराणों की कहानियाँ पढ़न-सुनने को मिली। इन संस्कारों का बालक पर गहरा असर पड़ा। बचपन में ही इन्हें हनुमान कवच का पाठ सिखाया गया। निंबार्क संप्रदाय के संत ब्रजदास जी ने बालक को दीक्षा दी।
उस समय देश गुलामी की जंजीरों मे जकड़ा हुआ था। इनके पिता अपने कारोबार का वजह से कलकत्ता में थे और ये अपने दादाजी के साथ असम में। कलकत्ता में ये स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों अरविंद घोष, देशबंधु चितरंजन दास, पं, झाबरमल शर्मा के संपर्क में आए और आज़ादी आंदोलन में कूद पड़े। इसके बाद लोकमान्य तिलक और गोपालकृष्ण गोखले जब कलकत्ता आए तो भाई जी उनके संपर्क में आए इसके बाद उनकी मुलाकात गाँधीजी से हुई। वीर सावकरकर द्वारा लिखे गए `१८५७ का स्वातंत्र्य समर ग्रंथ' से भाई जी बहुत प्रभावित हुए और १९३८ में वे वीर सावरकर से मिलने के लिए मुंबई चले आए। १९०६ में उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के खिलाफ आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया। युवावस्था में ही उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरु कर दिया। विक्रम संवत १९७१ में जब महामना पं. मदन मोहन मालवीय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए धन संग्रह करने के उद्देश्य से कलकत्ता आए तो भाईजी ने कई लोगों से मिलकर इस कार्य के लिए दान-राशि दिलवाई।
कलकत्ता में आजादी आंदोलन और क्रांतिकारियों के साथ काम करने के एक मामले में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने हनुमान प्रसाद पोद्दार सहित कई प्रमुख व्यापारियों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। इन लोगों ने ब्रिटिश सरकार के हथियारों के एक जखीरे को लूटकर उसे छिपाने में मदद की थी। जेल में भाईजी ने हनुमान जी की आराधना करना शुरु करदी। बाद में उन्हें अलीपुर जेल में नज़रबंद कर दिया गया। नज़रबंदी के दौरान भाईजी ने समय का भरपूर सदुपयोग किया वहाँ वे अपनी दिनचर्या सुबह तीन बजे शुरु करते थे और पूरा समय परमात्मा का ध्यान करने में ही बिताते थे। बाद में उन्हें नजरबंद रखते हुए पंजाब की शिमलपाल जेल में भेज दिया गया। वहाँ कैदी मरीजों के स्वास्थ्य की जाँच के लिए एक होम्योपैथिक चिकित्सक जेल में आते थे, भाई जी ने इस चिकित्सक से होम्योपैथी की बारीकियाँ सीख ली और होम्योपैथी की किताबों का अध्ययन करने के बाद खुद ही मरीजों का इलाज करने लगे। बाद में वे जमनालाल बजाज की प्रेरणा से मुंबई चले आए। यहाँ वे वीर सावरकर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महादेव देसाई और कृष्णदास जाजू जैसी विभूतियों के निकट संपर्क में आए।
मुंबई में उन्होंने अग्रवाल नवयुवकों को संगठित कर मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल की स्थापना की। इसके बाद वे प्रसिध्द संगीताचार्य विष्णु दिगंबर के सत्संग में आए और उनके हृदय में संगीत का झरना बह निकला। फिर उन्होंने भक्ति गीत लिखे जो `पत्र-पुष्प' के नाम से प्रकाशित हुए। मुंबई में वे अपने मौसेरे भाई जयदयाल गोयन्का जी के गीता पाठ से बहुत प्रभावित थे। उनके गीता के प्रति प्रेम और लोगों की गीता को लेकर जिज्ञासा को देखते हुए भाई जी ने इस बात का प्रण किया कि वे श्रीमद् भागवद्गीता को कम से कम मूल्य पर लोगों को उपलब्ध कराएंगे। फिर उन्होंने गीता पर एक टीका लिखी और उसे कलकत्ता के वाणिक प्रेस में छपवाई। पहले ही संस्करण की पाँच हजार प्रतियाँ बिक गई। लेकिन भाईजी को इस बात का दु:ख था कि इस पुस्तक में ढेरों गलतियाँ थी। इसके बाद उन्होंने इसका संशोधित संस्करण निकाला मगर इसमें भी गलतियाँ दोहरा गई थी। इस बात से भाई जी के मन को गहरी ठेस लगी और उन्होंने तय किया कि जब तक अपना खुद का प्रेस नहीं होगा, यह कार्य आगे नहीं बढ़ेगा। बस यही एक छोटा सा संकल्प गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना का आधार बना। उनके भाई गोयन्का जी व्यापार तब बांकुड़ा (बंगाल ) में था और वे गीता पर प्रवचन के सिलसिले में प्राय: बाहर ही रहा करते थे। तब समस्या यह थी कि प्रेस कहाँ लगाई जाए। उनके मित्र घनश्याम दास जालान गोरखपुर में ही व्यापार करते थे। उन्होने प्रेस गोरखपुर में ही लगाए जाने और इस कार्य में भरपूर सहयोग देने का आश्वासन दिया। इसके बाद मई १९२२ में गीता प्रेस का स्थापना की गई।
१९२६ में मारवाड़ी अग्रवाल महासभा का अधिवेशन दिल्ली में था सेठ जमनालाल बजाज अधिवेशन के सभापति थे। इस अवसर पर सेठ घनश्यामदास बिड़ला भी मौजूद थे। बिड़लाजी ने भाई जी द्वारा गीता के प्रचार-प्रसार के लिए किए जा रहे कार्यों की सराहना करते हुए उनसे आग्रह किया कि सनातन धर्म के प्रचार और सद्विचारों को लोगों तक पहुँचाने के लिए एक संपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन होना चाहिए। बिड़ला जी के इन्हीं वाक्यों ने भाई जी कोकल्याण नाम की पत्रिका के प्रकाशन के लिए प्रेरित किया।
इसके बाद भाई जी ने मुंबई पहुँचकर अपने मित्र और धार्मिक पुस्तकों के उस समय के एक मात्र प्रकाशक खेमराज श्री कृष्णदास के मालिक कृष्णदास जी से `कल्याण' के प्रकाशन की योजना पर चर्चा की। इस पर उन्होंने भाई जी से कहा आप इसके लिए सामग्री एकत्रित करें इसके प्रकाशन की जिम्मेदारी मैं सम्हाल लूंगा। इसके बाद अगस्त १९५५ में कल्याण का पहला प्रवेशांक निकला। कहना न होगा कि इसके बाद `कल्याण' भारतीय परिवारों के बीच एक लोकप्रिय ही नहीं बल्कि एक संपूर्ण पत्रिका के रुप में स्थापित होगई और आज भी धार्मिक जागरण में कल्याण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। `कल्याण' तेरह माह तक मुंबई से प्रकाशित होती रही। इसके बाद अगस्त १९२६ से गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित होने लगा।
भाईजी ने कल्याण को एक आदर्श और रुचिकर पत्रिका का रुप देने के लिए तब देश भर के महात्माओं धार्मिक विषयों में दखल रखने वाले लेखकों और संतों आदि को पत्र लिखकर इसके लिए विविध विषयों पर लेख आमंत्रित किए। इसके साथ ही उन्होंने श्रेष्ठतम कलाकारों से देवी-देवताओं के आकर्षक चित्र बनवाए और उनको कल्याण में प्रकाशित किया। भाई जी इस कार्य में इतने तल्लीन हो गए कि वे अपना पूरा समय इसके लिए देने लगे। कल्याण की सामग्री के संपादन से लेकर उसके रंग-रुप को अंतिम रुप देने का कार्य भी भाईजी ही देखते थे। इसके लिए वे प्रतिदिन अठारह घंटे देते थे। कल्याण को उन्होंने मात्र हिंदू धर्म की ही पत्रिका के रुप में पहचान देने की बजाय उसमे सभी धर्मों के आचार्यों, जैन मुनियों, रामानुज, निंबार्क, माध्व आदि संप्रदायों के विद्वानों के लेखों का प्रकाशन किया।
भाईजी ने अपने जीवन काल में गीता प्रेस गोरखपुर में पौने छ: सौ से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित की। इसके साथ ही उन्होंने इस बात का भी ध्यान रखा कि पाठकों को ये पुस्तकें लागत मूल्य पर ही उपलब्ध हों। कल्याण को और भी रोचक व ज्ञानवर्धक बनाने के लिए समय-समय पर इसके अलग-अलग विषयों पर विशेषांक प्रकाशित किए गए। भाई जी ने अपने जीवन काल में प्रचार-प्रसार से दूर रहकर ऐसे ऐसे कार्यों को अंजाम दिया जिसकी बस कल्पना ही की जा सकती है। १९३६ में गोरखपुर में भयंकर बाढ़ आगई थी। बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के निरीक्षण के लिए पं. जवाहरलाल नेहरु -जब गोरखपुर आए तो तत्कालीन अंग्रेज सरकार के दबाव में उन्हें वहाँ किसी भी व्यक्ति ने कार उपलब्ध नहीं कराई, क्योंकि अंग्रेज कलेक्टर ने सभी लोगों को धौंस दे रखी थी कि जो भी नेहरु जी को कार देगा उसका नाम विद्रोहियों की सूची में लिख दिया जाएगा। लेकिन भाई जी ने अपनी कार नेहरु जी को दे दी।
१९३८ में जब राजस्तथान में भयंकर अकाल पड़ा तो भाई जी अकाल पीड़ित क्षेत्र में पहुँचे और उन्होंने अकाल पीड़ितों के साथ ही मवेशियों के लिए भी चारे की व्यवस्था करवाई। बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारका, कालड़ी श्रीरंगम आदि स्थानों पर वेद-भवन तथा विद्यालयों की स्थापना में भाईजी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपने जीवन-काल में भाई जी ने २५ हजार से ज्यादा पृष्ठों का साहित्य-सृजन किया।
फिल्मों का समाज पर कैसा दुष्परिणाम आने वाला है इन बातों की चेतावनी भाई जी ने अपनी पुस्तक `सिनेमा मनोरंजन या विनाश' में देदी थी। दहेज के नाम पर नारी उत्पीड़न को लेकर भाई जी ने `विवाह में दहेज' जैसी एक प्रेरक पुस्तक लिखकर इस बुराई पर अपने गंभीर विचार व्यक्त किए थे। महिलाओं की शिक्षा के पक्षधर भाई जी ने `नारी शिक्षा' के नाम से और शिक्षा-पध्दति में सुधार के लिए वर्तमान शिक्षा के नाम से एक पुस्तक लिखी। गोरक्षा आंदोलन में भी भाई जी ने भरपूर योगदान दिया। भाई जी के जीवन से कई चमत्कारिक और प्रेरक घटनाएं जुड़ी हुई है। लेकिन उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि एक संपन्न परिवार से संबंध रखने और अपने जीवन काल में कई महत्वपूर्ण लोगों से जुड़े होने और उनकी निकटता प्राप्त करने के बावजूद भाई जी को अभिमान छू तक नहीं गया था। वे आजीवन आम आदमी के लिए सोचते रहे। इस देश में सनातन धर्म और धार्मिक साहित्य के प्रचार और प्रसार में उनका योगदान उल्लेखनीय है। गीता प्रेस गोरखपुर से पुस्तकों के प्रकाशन से होने वाली आमदनी में से उन्होंने एक हिस्सा भी नहीं लिया और इस बात का लिखित दस्तावेज बनाया कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य इसकी आमदनी में हिस्सेदार नहीं रहेगा।
अंग्रेजों के जमाने में गोरखपुर में उनकी धर्म व साहित्य सेवा तथा उनकी लोकप्रियता को देखते हुए तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर पेडले ने उन्हें `राय साहब' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन भाई जी ने विनम्रतापूर्वक इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद अंग्रेज कमिश्नर होबर्ट ने `राय बहादुर' की उपाधि देने का प्रस्ताव रखा लेकिन भाई जी ने इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया।
देश की स्वाधीनता के बाद डॉ, संपूर्णानंद, कन्हैयालाल मुंशी और अन्य लोगों के परामर्श से तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने भाई जी को `भारत रत्न' की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा लेकिन भाई जी ने इसमें भी कोई रुचि नहीं दिखाई।
२२ मार्च १९७१ को भाई जी ने इस नश्वर शरीर का त्याग कर दिया और अपने पीछे वे `गीता प्रेस गोरखपुर' के नाम से एक ऐसा केंद्र छोड़ गए, जो हमारी संस्कृति को पूरे विश्व में फैलाने में एक अग्रणी भूमिका निभा रहा है।
जियो तो ऐसे जियो | शिवानी जोशी | शुक्रवार , 05 अक्टूबर 2007 | |
इस देश में संत महात्माओं की कमी नहीं, शाही जिंदगी जीने वाले और कॉरेपोरेट घरानों के लिए कथा करने वाले इन संत- महात्माओं ने अपने ऑडिओ-वीडिओ जारी करने, अपनी शोभा यात्राएं निकालने, अपने नाम और फोटो के साथ पत्रिकाएं प्रकाशित करने और टीवी चैनलों पर समय खरीदकर अपना चेहरा दिखाकर जन मानस में अपना प्रचार करने के अलावा कुछ नहीं किया। मगर इस देश के सभी संत और महात्मा मिलकर भी गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक कर्मयोगी स्वर्गीय हनुमान प्रसाद पोद्दार की जगह नहीं ले सकते। शायद आज की पीढ़ी को तो पता ही नहीं होगा कि भारतीय अध्यात्मिक जगत पर हनुमान पसाद पोद्दार नामका एक ऐसा सूरज उदय हुआ जिसकी वजह से देश के घर-घर में गीता, रामायण, वेद और पुराण जैसे ग्रंथ पहुँचे सके। |